Ghuspaithiye se aakhiri mulakat ke baad - 1 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद - 1

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घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद - 1

घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 1

पिछली तीन बार की तरह इस बार भी मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकली कि लखनऊ में मानसून करीब हफ्ते भर देर से पहुंचेगा। मानसून विभाग द्वारा बताए गए संभावित समय को बीते दो दिन नहीं हुए थे कि लक्ष्मण की नगरी लखनऊ के आसमान में बादल नज़र आने लगे थे। मेरा बेहद भावुक किस्म का साथी फोटोग्रॉफर पत्रकार अरूप पाल आसमान में चहलकदमी करते मानसूनी बादलों की कई फोटो खींच कर ऑफ़िस में मेरे सिस्टम में लोड कर गया था। मैंने उन सब फोटुओं पर एक नज़र डाली। मगर उनमें से कोई भी मुझे कुछ ख़ास नहीं लगी कि मैं उसे अखबार के लोकल पेज पर लगा कर कोई कैप्शन देता।

शहर वालों को बताता कि लो ‘फिर घिर आए कारे बदरा, सड़क के गढ्ढे सताएंगे बन ताल-पोखरा।’ मेरा फोटोग्रॉफर साथी निराश न हो यह सोच कर मैं कभी भी उसकी किसी फोटो को खराब या उसकी आलोचना नहीं करता था। बस इतना ही कहता था कि यार कुछ इस टाइप की भी फोटो चाहिए। उस दिन भी मैंने उससे यही कहा कि अरूप कुछ फोटो ऐसी भी लाओ जिसमें बादलों की उमड़-घुमड़ ज़्यादा हो। वह कुछ सेकेंड चुपचाप खड़ा रहा फिर बोला ‘हूं ... देखता हूं।’ फिर चला गया।

इसके बाद मैं पेज को जल्दी-जल्दी तैयार करने लगा।

वैसे तो पूरा पेज देर रात कहीं फाइनली तैयार हो पाता था। लेकिन जिस दिन मुझे फतेहपुर के राधा नगर में कमला वर्मा के पास जाना होता था, उस दिन सात बजे तक जितना काम हो पाता उसे कर देता, बाकी अपने दूसरे साथी के हवाले कर के चल देता। क्योंकि मैं फतेहपुर मोटर-साइकिल से ही जाता था। लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी तय करने में मुझे दो घंटे से कुछ ज़्यादा समय लग जाता था। वहां जाने का प्रोग्राम मैं अपनी साप्ताहिक छुट्टी के एक दिन पहले बनाता था। और अगले दिन वहां से देर रात ही लौटता था। प्रधान संपादक को भी मेरी इस हरकत की पूरी जानकारी थी। लेकिन एक तरह से वह हम सबको संभाले रखने की गरज से मैनेज किए रहते थे। क्यों कि पेपर की हालत काफी खराब हो चुकी थी।

मालिक ने जिस ताम-झाम के साथ बड़े पैमाने पर पेपर शुरू किया था उस वक़्त उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि जल्दी ही उनके खराब दिन आने वाले हैं। उनकी पार्टी की सत्ता जाते ही वह कानून के शिकंजे में फंस जाएंगे। उन्हें अपने राजनेता होने, अपनी ताकत पर बड़ा घमंड था। उन्होंने पेपर शुरू ही किया था अपनी हनक और बढ़ाने के लिए। जब तक पार्टी की सत्ता रही,तब तक वह कानून के शिकंजे से बाहर रहे। पेपर के लिए फंड की कोई कमी नहीं थी। लेकिन जैसे ही उनकी पार्टी सत्ता से बाहर हुई और वह कानून के शिकंजे में फंसे, वैसे ही फंड की कमी भी शुरू हो गई।

पूरे स्टाफ पर खबरों से ज़्यादा विज्ञापन लाने का दबाव बढ़ता जा रहा था। इसके चलते स्टाफ के कई अच्छे होनहार लोग पेपर छोड़ कर दूसरे पेपरों का रुख कर चुके थे। मैं भी कहीं फिराक में हूं यह अफवाह आए दिन ऑफ़िस में उड़ती रहती थी। दरअसल यह सही ही था। क्योंकि मैं एक और बात से भी आहत था। कि यहां खबरों को छापने को लेकर प्रबंधन का हस्तक्षेप अन्य पेपरों से कहीं ज़्यादा था। अतः मैं भी किसी बढ़िया विकल्प की तलाश में था।

उस दिन भी मैं फतेहपुर जाने के लिए जब जल्दी निकलने लगा तो प्रधान संपादक अचानक ही गलियारे में मिल गए। मुझे देखते ही बोले ‘क्यों महोदय निकल लिए टूर पर।’ ऑफ़िस में सब मेरे और कमला वर्मा के रिश्तों के बारे में जानते थे, संपादक ने वही व्यंग्य मारा था। मैंने भी बिना किसी लाग-लपेट के कहा ‘सर आप तो जानते ही हैं, कि हफ्ते भर जी तोड़ मेहनत करने के बाद मैं खुद को अगले हफ्ते के लिए रिएनरजाईज करने के लिए जाता हूं। जिससे अगले हफ्ते भर काम ज़्यादा और बढ़िया कर सकूं।’

मेरी इस बात पर वह जोर से हा .. हा ... कर हंस दिए, फिर बोले ‘ठीक है रिएनरजाईज होते रहो, मगर संभल कर। अच्छा ये बताओ उस ऐड का क्या हुआ ?’ मैंने कहा ‘पार्टी ने अभी एक महीने रुकने को कहा है।’ इस पर वह कुछ पल मेरी आंखों में आंखें डाले देखते रहे। मानो मेरी बात की सत्यता जानने के लिए उन्हें पढ़ रहे हों । फिर हौले से सिर हिला कर बोले ‘ठीक है ध्यान रखना। और हां बाइक धीरे चलाना।’

वह ऐसे मौकों पर मुझे धीरे बाइक चलाने की नसीहत देना कभी नहीं भूलते थे। उनकी यह बात मुझे कुछ देर को उनके साथ इमोशनली अटैच कर देती थी। मैं उस वक़्त जल्दी में था। कमला के पास जल्द से जल्द पहंुचने की बेचैनी बढ़ रही थी। इसलिए उनकी इस इमोशनल बात का संक्षिप्त सा जवाब दिया ‘ओ.के. सर, थैंक यू’ और हाथ मिला कर बाहर निकल आया अपनी बाइक के पास। मैं अपनी इस बाइक से आज भी बहुत प्यार करता हूं। यमाहा की फाइव गियर बाइक को मैं इतना मेंटेन रखता हूं कि लगता है मानो अभी-अभी शो रूम से आई है। जबकि लिए हुए पंद्रह साल से ज़्यादा हो चुके हैं और कंपनी ने इसका उत्पादन भी बंद कर दिया है।

गाड़ी की कंडीशन देख कर मेरे दोस्त कहते भी हैं तू इसे पोंछता ज़्यादा है चलाता कम है। मैं इस जुमले को हंस कर आज भी टाल जाता हूं। अपनी इसी प्यारी बाइक को लेकर महानगर के एक प्रतिष्ठित रेस्टोरेंट गया, वहां से कबाब, पराठे और एक रोस्टेड चिकेन पैक कराया। इस रेस्टोरेंट वाले ने मुझसे तब से पैसा लेना बंद कर दिया था, जबसे मैंने इसे पड़ोसी दुकानदार से हुए झगड़े में हवालात पहुँच जाने पर आसानी से छुड़वा दिया था। और इसके विरोधी को टाइट भी करवा दिया था। अन्य मामले में भी आए दिन उसकी कुछ न कुछ मदद करता ही रहता था। इसके चलते वह पहुंचने पर मेरी जमकर आवभगत करता है और पैसे भी नहीं लेता।

उस दिन भी उसने बैठने और कुछ खा-पी लेने के लिए कहा लेकिन मैंने कहा फिर कभी अभी जल्दी में हूं। वहां से निकल कर मैंने रॉयल स्टैग व्हिस्की की एक बोतल भी लेकर डिक्की में डाल ली। और बिना एक पल गंवाए फतेहपुर की ओर चल दिया। तेज़ बाइक चलाना मेरी आदत में शामिल है। अपनी इसी आदत के अनुरूप मैं एवरेज सत्तर-अस्सी की स्पीड से चला और करीब पौन घंटे से कम समय में बछरांवा तिराहे पर पहुँच गया और फतेहपुर के लिए बाईं ओर मुड़ कर रुक गया।

बस-स्टेशन के सामने एक पान की दुकान से एक डिब्बी गोल्ड फ्लेक लेकर एक सिगरेट वहीं खड़े-खड़े पी और छः पान भी बंधवा लिए। कमला के लिए चार मीठे पान अलग से लिए। लगभग नौ बज रहे थे। सड़क पर अब भी चहल-पहल थी। तभी मैंने देखा फतेहपुर डिपो की बस फतेहपुर के लिए बस-स्टेशन से बाहर निकल रही है। बस करीब-करीब पूरी भरी थी। वह मेरे सामने से ही निकल कर धीरे-धीरे आगे जा कर आंखों से ओझल हो गई। करीब दस मिनट बाद मैं भी चल दिया अपनी मंजिल की ओर।

मेरा मन कमला तक पहुंचने को मचल रहा था। दोपहर से शाम तक उससे चार बार बात हो चुकी थी। बछरांवा से चलते वक़्त मुझे आसमान में कुछ छिटपुट बादल दिखाई दिए थे। आगे की सड़क पतली और गढ्ढों से भरी जिगजैग थी इसलिए बाइक की स्पीड ज़्यादा नहीं बढ़ा पा रहा था। कुछ किलोमीटर चलने के बाद मैंने देखा आसमान घने बादलों से ढक गया है। हवा एकदम शांत थी। सड़क पर अब चहल-पहल नहीं सन्नाटा दिखने लगा था। काफी समय के अंतराल पर इक्का-दुक्का बाइक या अन्य वाहन दिख जाते थे। हर तरफ घुप्प अंधेरा था। सड़क से बहुत दूर कहीं एकाध टिम-टिमाती लाइट दिख जाती। पूरा माहौल बेहद डरावना लग रहा था।

मैं चाह कर भी बाइक की स्पीड बढ़ा नहीं पा रहा था। घुप्प डरावने अंधेरे को बाइक की हेडलाइट काफी दूर तक चीरती आगे-आगे चल रही थी। और बाइक की आवाज़ भी दूर तक गूंज कर भयभीत कर रही थी। इस सबके चलते मैं आगे कितना बढ़ चुका था, यह ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा था। जीवन मंे पहली बार ऐसे घनघोर बादलों से ढंके आसमान के नीचे, घुप्प अंधेरे में अकेले वियावान सी स्थिति में गुजर रहा था। अचानक ही पूरा इलाका तेज़ रोशनी से कौंध उठा। फिर कुछ पलों बाद बादलों की तेज़ गड़गड़ाहट ने कानों को कुछ देर के लिए सुन्न कर दिया।

बाइक का हैंडिल मुझसे छूटते-छूटते बचा। अब मैं और ज़्यादा सावधानी बरतते हुए स्पीड कम कर आगे बढ़ रहा था। बिजली कड़कने के कुछ ही देर बार बूंदा-बांदी शुरू हो गई। मुझे तब इतना याद था कि आगे अभी लालगंज तक कहीं ठहरने की कोई जगह नहीं है। बीच में एक बेहद दयनीय हालत में पेट्रोल पंप ज़रूर पड़ेगा। और कुछ छिटपुट मकान, वहां भी रुकने लायक कोई ठिकाना नहीं था। यह रास्ता बरसों से कमला के पास बार-बार जाने के कारण काफी हद तक मुझे याद हो गया था।

मेरे पास एक ही रास्ता था कि जैसे भी हो जल्दी से जल्दी कमला के पास पहुंचूं। अब मैं कुछ-कुछ परेशान होने लगा था। इस बीच बारिश तेज़ हो गई थी। चेहरे पर पानी की बूंदें सिटकी (छोटा कंकण) सी लग रही थीं। हेलमेट के शीशे पर पानी पड़ने से देखना मुश्किल हो रहा था इसलिए शीशा ऊपर कर दिया था। इसके बावजूद आंखों पर भी पानी पड़ने से देखने में दिक्कत हो रही थी। थकान अलग महसूस होने लगी थी। अब रह-रह कर बिजली चमक रही थी। बादल गरज और बरस भी रहे थे। मेरी मुश्किल बहुत बढ़ चुकी थी।

मेरे सामने इस बारिश में भीगते हुए आगे बढ़ते रहने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा था। इस लिए पूरी हिम्मत के साथ बढ़ता जा रहा था। मगर इतना ही काफी नहीं था। बाइक अचानक ही लहराने लगी। बैलेंस करना मुश्किल हो गया। रोक कर किसी तरह देखा तो मेरे होश उड़ गए। पिछला पहिया पंचर हो गया था। मेरे दिल की धड़कनें अचानक ही बढ़ र्गइं।

मेरे दिमाग में उस समय बिजली की तरह यह बात कौंध उठी कि यहां रुके रहना खतरे का इंतजार करते रहने जैसा है। पतली सड़क के दोनों तरफ के कच्चे फुटपाथ कीचड़ से हो रहे थे। आगे बढ़ते रहना मुश्किल से दूर होते रहना जैसा था। भले ही पैदल ही सही। मैं आगे बढ़ने को हुआ तो मुझे पीछे दूर से दो हेड-लाइट करीब आती दिखाई दीं। मैं रुक गया कि शायद कोई मदद मिल जाए।

लेकिन देखते-देखते दो बाइक सामने से आगे निकल गईं। मैंने उन्हें रोकने के लिए जोर-जोर से हाथ हिलाया था लेकिन दोनों पलभर को भी ध्यान दिए बिना तेज़ी से आगे निकल गए।

इस हालत में भी मैं उन दोनों को दाद दिए बिना न रह सका। ऐसी खराब सड़क और तेज़ बारिश में भी दोनों बेतहाशा गाड़ी भगा रहे थे। उन्हें देख कर मेरा जोश फिर जाग उठा। तब पैदल चलना मुझे कहीं से समझदारी न लगी और मैं पंचर गाड़ी पर ही पेट्रोल टंकी के एकदम करीब बैठ कर धीरे-धीरे आगे बढ़ चला। फिर भी गाड़ी बुरी तरह लहरा रही थी। ऐसे ही करीब बीस मिनट चलने के बाद मैं उस दयनीय पेट्रोल पंप के सामने पहुँच। वहां घुप्प अंधेरा हर तरफ था।

पंप के पीछे कुछ दूर पर बने कमरे की छोटी सी खिड़की की झिरी से धुंधली लाइट नजर आ रही थी। मैंने बाइक खड़ी कर दरवाजा खटखटाते हुए पूछा ‘कोई है ?’ दो-तीन बार खटखटाने पर अंदर से किसी आदमी ने पूछा ‘कौन है ?’ तो मैंने उसे पंचर गाड़ी की बात बताते हुए मदद मांगी, इस पर वह अंदर से ही बोला ‘थोड़ा आगे चले जाओ बाएं तरफ एक पंचर की दुकान है। शायद कोई मिल जाए। यहां कुछ नहीं है।’

पंचर की दुकान सुन कर मुझे बड़ी राहत मिली। मैंने जल्दी से गाड़ी स्टार्ट कर हेड लाइट ऑन की, बांई तरफ देखता हुआ आगे तीस-चालीस कदम ही बढ़ा होऊंगा कि बाइक की रोशनी में एक आठ-नौ फुट ऊंचे बांस में कई टायर एक के ऊपर एक रखे दिखाई दिए। दूर-दराज की पंचर की दुकानों पर दूर से ही दिखाई देने वाला यह ख़ास निशान है। मैं स्टार्ट गाड़ी लिए तेज़ कदमों से उसके पास पहुंचा। फुटपाथ से दस-पंद्रह कदम पीछे हट कर एक अच्छी-खासी बड़ी सी झोपड़ी थी। कच्ची दीवार पर छप्पर पड़ा हुआ था। छप्पर पर कई टूकड़ों में फटी-पुरानी पॉलिथीन भी पड़ी थी।

अच्छा-ख़ासा चौड़ा दरवाजा था। जो बांस के टट्टर से बंद था। टट्टर पर अंदर से मोटे बोरे आदि लगा कर उसे शील किया गया था। उसी दरवाजे पर पहुंच कर मैंने चार-पांच आवाजें दीं। कहा ‘मेरी गाड़ी पंचर हो गयी है थोड़ी मदद चाहिए।’ तब कहीं अंदर से आवाज़ आई ‘सबेरे आओ इतने समय कुछ न हो पाई।’ उस विकट सूनसान में एक झोपड़ी में महिला की आवाज़ सुन कर मैं कुछ पशोपेश में पड़ गया। टट्टर के कुछ सुराखों से जैसी मटमैली पीली लाइट दिख रही थी उसे देख कर लग रहा था कि अंदर लालटेन वगैरह जल रही है।

मैं यह सोच कर परेशान था कि इस निपट अकेले में कोई महिला अकेले तो होगी नहीं। पुरुष भी जरूर होगा फिर वह क्यों नहीं बोला। मैं अब अंदर ही अंदर घबराने लगा था। मैंने फिर आवाज़ दी कि ‘क्या आगे पास में कोई दुकान मिल जाएगी या बारिश रुकने तक ठहरने की जगह।’ यह बात भी दो-तीन बार दोहराने के बाद बड़ा रूखा जवाब मिला कि ‘अब अत्ती बखत हिंआ कहूं कुछ ना मिली। आगे लालगंज जाओ बस हुंआ कुछ मिल सकत है।’ लालगंज यानी करीब अठाइस-तीस किलो मीटर और आगे जाने की बात ने मेरे होश उड़ा दिए। इस बात ने सांसत और बढ़ा दी कि इस बार भी किसी पुरुष के होने की कोई आहट नहीं मिली। फिर से वही महिला बोली थी।

अब यह एकदम साफ था कि कोई ऐसा वाहन मिल जाए जिस पर मैं अपनी बाइक लाद कर आगे लालगंज तक जाऊं। क्योंकि रास्ता इतना खराब हो चुका था कि पंचर गाड़ी लेकर आगे बढ़ना अपनी जान को विकट खतरे में डालना था। यह सोच कर मैं ऐसे वाहन का इंतजार करने लगा जो बछरांवा की तरफ से लालगंज की तरफ जा रहा हो। पंद्रह मिनट बाद उधर से एक ट्रैक्टर गुजरा। हाथ देने पर उसने रोक भी दिया। लेकिन बात नहीं बनी। उस की ट्राली भूसे से भरी थी। चारो तरफ बांस,बोरो को लगा कर ट्राली से करीब चार फुट और ऊंचाई तक भूसा भरा था। फिर ऊपर से तिरपाल से ढंका था। ट्रैक्टर पर भी ड्राइवर सहित आठ लोग बैठे थे।

मैंने अपनी हालत बता कर मदद मांगी तो उन सब ने हाथ खड़े करते हुए कहा हम कुछ नहीं कर पाएंगे। हां पीछे अभी कुछ और गाड़ियां आएंगी। उनका इंतजार करिए। मैं हाथ मल कर रह गया। उनकी बात पर विश्वास करने, भीगते हुए और इंतजार करने के सिवा मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। तभी मुझे अपनी अकल पर तरस आया कि अपने मित्र धीरेंद्र धीर को फ़ोन करने की बात अब तक मेरे मन में क्यों नहीं आई। शायद वह कुछ इंतजाम कर दे। वह कमला के घर में ही पिछले तीन साल से किराये पर रह रहा था। साथ ही कमला को भी बता दूं कि मैं कैसी मुसीबत में पड़ गया हूं। बेचारी कब से इंतजार कर रही होगी। मगर यह सोचते ही मेरा दिल धक्क से हो गया।

हाथ तेजी से शर्ट की जेब में गया, जिसमें मोबाइल था। जो बुरी तरह पानी में डूब चुका था। मन ही मन कहा हो गया सत्यानाश। मोबाइल निकाल कर ऑन करने की कोशिश की तो वह नहीं हुआ। किस्तों पर लिए गए मेरे बीस हज़ार रुपए के मोबाइल की बारिश ने ऐसी की तैसी कर दी थी। मैं अब एकदम असहाय हो गया था। इसी बीच बाइक एक तरफ लुढ़क गई। फुटपाथ के कीचड़ में उसका साइड स्टैंड धंस गया था, जिससे वह लुढ़क गई। किसी तरह उठा कर मैंने फिर स्टैंड पर खड़ी की।

तभी झोपड़ी में हुई कुछ आहट की तरफ मेरा ध्यान गया। मैंने अपना कान उधर लगा दिया। लगा जैसे कोई टट्टर के पास आया। घुप्प अंधेरे में इस आहट ने मुझे बहुत डरा दिया था। मेरी धड़कनें बढ़ी हुई थीं। तभी सामने तेज़़ बिजली कौंधी। पूरा इलाका रोशनी में नहा गया। एक चमकीली पतली सी सर्पाकार लाइट आसमान में चमकी और क्षितिज पर नीचे को लपक कर गायब हो गई। इसके साथ ही कानों को सुन्न करती बादलों की गड़-गड़ाहट से पूरा एरिया थर्रा उठा। मैं मुश्किल से पैर जमीन पर टिकाए रख सका। बारिश और ते़ज हो गई। मैंने मोबाइल पैंट की जेब में डाल दिया। तभी मैंने सोचा कि चलूं पेट्रोल पंप वाले को बोलूं कि रात भर के लिए शरण दे दे। लेकिन वहां जिस तरह से गुर्रा कर बात की गई थी उससे हिम्मत नहीं पड़ी।

वहां छोटी सी खिड़की के धुंधले से शीशे के उस पार एक बंदूक भी नजर आई थी। उस छोटे से कमरे में शरण मिलने की मुझे कोई उम्मीद नजर नहीं आई। वैसे भी ये पंप वाले किसी को रुकने नहीं देते। और ऐसे सूनसान एरिया में तो बिल्कुल नहीं। मैंने पंप पर जाने का इरादा छोड़ दिया। बहुत देर से लगातार भीगने के कारण अब मुझे अच्छी खासी ठंड लग रही थी। पानी के साथ-साथ हवा भी तेज़ थी।

तभी मेरा ध्यान डिक्की में पड़ी रॉयल स्टेग पर गया। सोचा निकाल कर थोड़ी सी पी लूं तो इस ठंड से राहत मिलेगी। नहीं तो तबियत खराब होने का पूरा इंतजाम हो गया है। पिछले एक घंटे में दसियों बार छींक चुका हूं। यह सोच कर मैं डिक्की की तरफ पहुंचा कि तभी उस टट्टर के पीछे से उसी महिला की तेज़ आवाज़ आई कि ‘अरे! हिंआ से आगे का चले जाओ ना।’ डिक्की की तरफ बढ़ा मेरा हाथ ठहर गया। उसकी इस बात ने मुझे झकझोर दिया। कि कैसी निष्ठुर हो गई है दुनिया। इतनी मुसीबत में बाहर घंटे भर से भीग रहा हूं। यह तो नहीं कहा एक बार भी कि पानी रुकने तक आ जाओ अंदर।

सड़क पर खड़ा हूं इस पर भी भड़क रही है। सड़क पर अनथराइज दुकान खोल रखी है। हनक ऐसी कि जैसे इसके बाप की जमीन पर खड़ा हूं। मन में भद्दी सी कई गालियां उसे एक साथ देता हुआ मैंने कहा ‘अरे! परेशान न हो कोई साधन मिलते ही चला जाऊंगा।’ अंदर से जवाब मिला ‘परेशान काहे होइबे।’ इस बार उसकी आवाज़ कुछ कर्कश हो चुकी थी। मेरा डर बढ़ता जा रहा था कि आखिर मामला क्या है कि अंदर से कोई मर्द क्यों नहीं बोल रहा है। ये महिला ही बार-बार क्यों बोल रही है। सूनसान विराने इलाके में इसके रुकने का मतलब क्या है? देहात में सड़क पर ऐसी छोटी-मोटी दुकानें रखने वाले लोग गोधुलिया(शाम) होते-होते दुकानें बंद कर अपने घरों को चले जाते हैं। औरत जात यह अकेले क्या कर रही है? अगर कोई मर्द है तो अब तक वह सन्नाटा मारे अंदर क्यों बैठा है?

ऐेसे उमड़ते-घुमड़ते तमाम प्रश्न मेरे भय को बढ़ाते जा रहे थे। कोई गाड़ी आ रही हो यह सोच मैं फुटपाथ से पक्की सड़क की तरफ चार कदम आगे बढ़ गया। दूर-दूर तक कुछ नहीं दिख रहा था। वो क्या कहते हैं कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। व्हिस्की पीने का इरादा दिलो-दिमाग से एकदम गायब हो गया था। ऐसे में संकटमोचन हनुमान जी याद आए और याद आया उनका चालीसा कि प्रभू रक्षा करो प्राणों की। मैं कठिन वक़्त में ही भगवान को याद करने वालों की तरह मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ करने लगा। भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै। नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा। संकट ते हनुमान छुड़ावै, मन क्रम वचन ध्यान जो लावै ..। लाइनें दोहराने लगा। इस चालीसा पाठ के सहारे सड़क पर मैंने बीस-पचीस मिनट और काट दिए।

इतने में कुल मिला कर एक जीप और एक पिकप ही निकली। जब कि फतेहपुर से बछरांवा के लिए एक भी वाहन नहीं निकला। अब तक मैंने यह निर्णय ले लिया था कि लखनऊ वापसी के लिए भी कोई साधन मिल गया तो वापस हो लूंगा। जिधर के लिए मिल जाएगा साधन ऊधर को ही चल दूंगा। बस इस विराने से जितनी जल्दी फुरसत मिले उतना अच्छा। हुनमान जी हिम्मत बढ़ा रहे हैं मुझे कुछ ऐसा लगने लगा। पता नहीं सच क्या था? लेकिन मैं भीतर मज़बूत होता महसूस कर रहा था। अजब है मन का भी खेल, ऐसे में जैसा सोचो वैसा ही होता दिखता है।

अचानक मेरे मन में आया कि सड़क पर मदद के लिए इधर-उधर देख रहा हूँ । और जो मदद इतनी देर से सामने खड़ी है उसकी तरफ पूरा ध्यान ही नहीं है। नाहक उससे भूत-पिशाच के वहम में थरथर कांप रहा हूं। यह तय है कि यहां आज की रात इसके अलावा इससे अच्छी मदद क्या कहने भर को भी मदद नहीं मिलने वाली। अभी सवेरा होने में सात-आठ घंटे हैं। तब तक इस हालत में रहा तो बच पाना मुश्किल है।

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